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Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha in Hindi

Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha in Hindi

Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha in Hindi : देवउठनी एकादशी की व्रत कथा, इसके पाठ से आपके सभी कार्य होंगे सिद्ध, मिलेगा व्रत का दोगुना फल

Dev Uthani Ekadashi Ki Katha : देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्‍णु की विधि विधान से पूजा करके उनको जगाया जाता है। इस दिन उनकी प्रिय चीजें जैसे सिंघाड़े, गन्‍ना, शकरकंदी, मूली और केले के फल का भोग लगाया जाता है। इस दिन भगवान विष्‍णु बेहद प्रसन्‍न मुद्रा में होते हैं। विधिविधान से उनकी पूजा करने और व्रत कथा का पाठ करने से आपको देवउठनी एकादशी के व्रत का दोगुना फल प्राप्‍त होता है। आइए जानते हैं देवउठनी एकादशी की व्रत कथा।

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Uthani Ekadashi Vrat Katha : देवउठनी एकादशी कार्तिक मास के शुक्‍ल पक्ष की एकादशी तिथि को कहते हैं। इस दिन भगवान विष्‍णु के साथ समस्‍त देवतागण चार महीने की निद्रा के बाद जागृत होते हैं और सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं। इस दिन भगवान विष्‍णु की विधि-विधान से पूजा की जाती है और उनकी प्रिय वस्‍तुओं का भोग लगाया जाता है। इसके साथ ही पूजा में देवउठनी एकादशी की व्रत कथा का पाठ किया जाता है। इसका पाठ करने से आपको भगवान विष्‍णु का आशीर्वाद मिलने के साथ ही आपको व्रत का दोगुना फल प्राप्‍त होता है। आइए देखते हैं देवउठनी एकादशी की व्रत कथा।
देवउठनी एकादशी की पहली व्रत कथा
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। वहां की प्रजा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला- महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। लेकिन रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।

उस व्यक्ति ने उस समय ‘हां’ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा- महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा। मुझे खाने के लिए अन्न दे दो।

राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, फिर भी वह अपनी बात पर अड़ा रहा और अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है।

उसके बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुंचे और प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।

पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।

यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला- मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूं, पूजा करता हूं, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।

राजा की बात सुनकर वह बोला- महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने हर रोज की तरह भोजन बनाया और भगवान को शाम तक पुकारता रहा, फिर भी भगवान न आए। अंत में उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।

फिर भी भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्याग ने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।

देवउठनी एकादशी की दूसरी व्रत कथा
एक समय भगवान नारायण से लक्ष्मी जी ने कहा- ‘हे नाथ! अब आप दिन-रात जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों-करोड़ों वर्ष तक को सो जाते हैं। उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं।

अत: आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा।’ लक्ष्मी जी की बात सुनकर नारायण मुस्काराए और बोले- ‘देवी’! तुमने ठीक कहा है। मेरे जागने से सब देवों को और ख़ास कर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता।

इसलिए, तुम्हारे कथनानुसार आज से मैं प्रति वर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों को अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्प निद्रा और प्रलय कालीन महानिद्रा कहलाएगी। यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों को परम मंगलकारी उत्सवप्रद तथा पुण्य वर्धक होगी।

इस काल में मेरे जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे और शयन और उत्पादन के उत्सव आनन्दपूर्वक आयोजित करेंगे उनके घर में तुम्हारे सहित निवास करूंगा।

देवउठनी एकादशी की तीसरी व्रत कथा
एक नगर में एक राजा था। उसके राज्य में सभी लोग बहुत सुखी थे। उस नगर में एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता और न ही कोई अन्न पकाता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहां क्यों बैठी हो?

तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले- मैं निराश्रिता हूं। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगी? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। वह बोला- तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो।

सुंदरी बोली- मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा। राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए और परोस कर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला- रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा।

तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली- या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी। राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली- महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा।

इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। मां की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो मां ने उसे सारी बात बता दी। तब वह बोला- मैं अपना सिर देने के लिए तैयार हूं। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी।


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